निकला था घर से विदा लेके,
देश के लिए मर मिटा था……
माँ की आँखों में थे आंसू,
चौड़ा हुआ था जिसका सीना, वो पिता था….
ख़ामोशी से मुस्कुराके,
अपने देश के लिए चल दिया……
अगर सरहद पे होता कोई छेद,
तो अपने खून से वो सीता था……
मेहँदी का रंग अब भी
दुल्हन के हाथो से जुड़ा था…..
और आँखों के सामने वो,
तिरंगे में लिपटा पड़ा था……
अब ज़िन्दगी भी मायूस थी
उसको भी समझ नहीं आया..
के आखिर दोनों में से
किसका त्याग ज्यादा बड़ा था…….
जिस वक़्त करनी थी उससे,
मरम्मत अपने घर की,
समझाने अपने परिवार को,
बात करता वो सबर की……
देश की सेवा का जूनून,
उसके सर पे चढ़ा था,
बचने अपने देश की शान,
भरी जवानी में वो मरमिटा था…..
सो रहे थे हम,
तब झेल रहे थे वो गोलियां…….
क़ुर्बान होक देश पे
खुशियों से भर रहे थे दूसरोकि वो झोलियाँ…..
हास्के शहादत पाना ही
उनका एकलौता ख्वाब था……
अपनी अर्थी को ही वो समझते थे
उनके ज़िन्दगी की वो डोलियां
– रोहन पिंपळे, विरार